Monday, November 9, 2009

My fav English poems - 2

The Road Not Taken - Robert Frost

Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;

Then took the other, as just as fair
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that, the passing there
Had worn them really about the same,

And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.

I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
two roads diverged in a wood, and I --
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.

Thursday, October 22, 2009

My fav Hindi poems - 8

आर्य- मैथिलीशरण गुप्त

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थरत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

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Wednesday, October 21, 2009

My fav Hindi poems - 7

मापदण्ड बदलो- दुष्यन्त कुमार


मेरी प्रगति या अगति का ,

यह मापदण्ड बदलो तुम,

जुए के पत्ते सा

मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,कोपलें उग रही हैं,पत्तियाँ झड़ रही हैं,

मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,

लड़ता हुआ नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,

मेरे बाज़ू टूट गए,मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,

मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,

तो मुझे पराजित मत मानना,

समझना –तब और भी बड़े पैमाने परमेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,

मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ

एक बार औरशक्ति आज़माने को

धूल में खो जाने या कुछ हो जाने कोमचल रही होंगी ।

एक और अवसर की प्रतीक्षा में

मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।


ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं

ये मुझको उकसाते हैं ।

पिण्डलियों की उभरी हुई नसेंमुझ पर व्यंग्य करती हैं ।

मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ क़सम देती हैं ।

कुछ हो अब, तय है –मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,

पत्थरों के सीने में प्रतिध्वनि जगाते हुए

परिचित उन राहों में एक बार

विजय-गीत गाते हुए जाना है –जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का

यह मापदण्ड बदलो तुम

मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

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My fav Hindi poems - 6

विजयी के सदृश जियो रे- रामधारी सिंह दिनकर

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

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कोशिश करने वालों की- हरिवंशराय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

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My fav Hindi poems - 5

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार - शिवमंगल सिंह सुमन

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

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एक भी आँसू न कर बेकार- रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

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My fav Hindi poems - 4

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ- शिवमंगल सिंह सुमन

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का ।

चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता ।

इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-
पथ नया अपना रहा हूँ पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है ।

शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा ।

इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर ।

अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर

इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँपर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन ।

एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो

अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को
-मैं भिगोता जा रहा हूँपर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।

आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता

पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने ।

बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी ।

नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ ।पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।।

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My fav Hindi poems - 3

मोको कहां ढूढे रे बन्दे- कबीर (Kabir)

मोको कहां ढूढे रे बन्दे , मैं तो तेरे पास में
ना तीर्थ मे ना मूर्त में ना एकान्त निवास में

ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में

ना मैं जप में,ना मैं तप में,ना मैं बरत उपास में

ना मैं किर्या कर्म में रहता,नहिं जोग सन्यास में

नहिं प्राण में,नहिं पिंड में,ना ब्रह्याण्ड आकाश में

ना मैं प्रकति प्रवार गुफा में,नहिं स्वांसों की स्वांस में


खोजि होए तुरत मिल जाउं,इक पल की तालाश में

कहत कबीर सुनो भई साधो,मैं तो हूँ विश्वास में

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आज फिर शुरू हुआ जीवन- रघुवीर सहाय


आज फिर शुरू हुआ जीवन

आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी

आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया

आज एक छोटी-सी बच्ची आयी, किलक मेरे कन्धे चढ़ी

आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ।।

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My fav Hindi poems - 2

चलना हमारा काम है- शिवमंगल सिंह 'सुमन' (ShivMangal Singh Suman)

गति प्रबल पैरों में भरी , फ़िर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने, है रास्ता इतना पडा

जब तक न मंजिल पा सकूँ,तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया, कुछ बोझ अपना बँट गया

अच्छा हुआ, तुम मिल गई कुछ रास्ता ही कट गया

क्या राह में परिचय कहूँ,राही हमारा नाम है,

चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए, पाता कभी खोता कभी

आशा निराशा से घिरा,हँसता कभी रोता कभी

गति-मति न हो अवरूद्ध,इसका ध्यान आठो याम है,

चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में, किसको नहीं बहना पडा

सुख-दुख हमारी ही तरह,किसको नहीं सहना पडा

फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,मुझ पर विधाता वाम है,

चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में, दर-दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ, रोडा अटकता ही रहा

निराशा क्यों मुझे, जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे, कुछ बीच ही से फिर गए

गति न जीवन की रूकी, जो गिर गए सो गिर गए

रहे हर दम,उसी की सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है ।


फकत यह जानता, जो मिट गया वह जी गया

मूंदकर पलकें सहज, दो घूँट हँसकर पी गया

सुधा-मिक्ष्रित गरल,वह साकिया का जाम है,

चलना हमारा काम है ।

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My fav Hindi poems -1

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है- Harivansh Rai Bachchan

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना

source - www.prayogshala.com